Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi

Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi: रानी लक्ष्मी बाई पर भाषण

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Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi

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Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi (1 Minute Speech on Rani Lakshmi Bai)

सभागार में मौजूद सभी सम्मानित अथितियों को मेरा नमस्कार, आदरणीय अध्यापक, अध्यापिका और मेरे प्यारे मित्रों को सुबह की नमस्ते। भारत एक ऐसा राज्य है, जहां पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाओं ने भी युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया है। भारत में ऐसी कई वीरांगनाई हुई हैं, जो अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। ऐसी ही एक वीरांगना की बात आज मैं करने वाला हूं। रानी लक्ष्मी बाई जी के बारे में हम सब जानते हैं ,कि उन्होंने किस तरह अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा था। 1857 में स्वतंत्रता की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई ने भी अपना अहम योगदान दिया था। अंग्रेजों द्वारा रानी लक्ष्मीबाई के राज्य झांसी को हड़पने की कोशिश की जा रही थी। इसी का विरोध करते हुए उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के साथ युद्ध लड़ा। 

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Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi (2 Minute Speech on Rani Lakshmi Bai)

सभागार में मौजूद सभी सम्मानित अथितियों को मेरा नमस्कार, आदरणीय अध्यापक, अध्यापिका और मेरे प्यारे मित्रों को सुबह की नमस्ते। रानी लक्ष्मीबाई को कई लोग अपना आदर्श मानते हैं। इन्होंने भारत की स्वतंत्रता में अपना अहम योगदान दिया है। रानी लक्ष्मीबाई वह स्वतंत्रता सेनानी थी। जिन्होंने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार ना करते हुए अंग्रेजों के साथ युद्ध किया। इन्होंने काफी छोटी उम्र में अंग्रेजों के साथ युद्ध कर मातृभूमि के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी। रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 1835 में वाराणसी में हुआ था। इनका बचपन का नाम मनु था। इनकी माता का नाम भागीरथी और पिता का नाम मोरे पंथ तांबे था। रानी लक्ष्मीबाई ने छोटी उम्र में युद्ध कला सीख कर खुद को एक योद्धा बना लिया था।

16 वर्ष की आयु में मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात मनु ने एक पुत्र को जन्म दिया ,लेकिन किसी कारण से पुत्र का निधन हो गया। पुत्र की मौत का गम राजा गंगाधर राव सह ना सके और उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए। झांसी की गद्दी राजा के बिना सूनी हो गई थी। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने गोद लिए हुए पुत्र गंगाधर राव को झांसी का उत्तराधिकारी घोषित किया ,लेकिन अंग्रेजों ने इसका विरोध करते हुए झांसी के साथ युद्ध छेड़ दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के साथ पहले झांसी में युद्ध किया, फिर कल्पी में और अंत में ग्वालियर में युद्ध करते समय गंभीर चोटें आने के कारण रानी की 1857 में मृत्यु हो गई।

Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi (3 Minute Speech on Rani Lakshmi Bai)

सभागार में मौजूद सभी सम्मानित अथितियों को मेरा नमस्कार, आदरणीय अध्यापक, अध्यापिका और मेरे प्यारे मित्रों को सुबह की नमस्ते। रानी लक्ष्मीबाई के बारे में सभी लोग जानते ही होंगे। भारत के इतिहास में कुछ ऐसी वीरांगनाएं हुई है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि को आजाद करने के लिए दुश्मनों से लोहा लिया है। रानी लक्ष्मीबाई भी भारत की एक ऐसी बेटी हैं, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए दुश्मनों से लोहा लिया था। रानी लक्ष्मीबाई जन्म 19 नवंबर 1835 को वाराणसी में हुआ था।

इनके पिता मोरे पंत तांबे बिठूर के पेशवा के यहां कर्मचारी थे। इनकी माता भागीरथी एक धार्मिक महिला थी। मात्र 4 साल की आयु में रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी माता को खो दिया। रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही काफी बहादुर थी। उनकी रुचि अन्य महिलाओं की तरह खेल खेलने में नहीं बल्कि युद्ध कला सीखने में थी। उन्होंने काफी छोटी उम्र में घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसी युद्ध कलाएं सीख लीं थी। जब रानी लक्ष्मीबाई 16 वर्ष की थी, तब उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ।

विवाह के कुछ समय पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन किसी कारणवश इनके पुत्र की मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु का गम झांसी के राजा गंगाधर राव भी ना सह सके, और कुछ समय बाद उनका भी निधन हो गया। झांसी के सिंहासन को सुना देख रानी लक्ष्मीबाई ने गंगाधर राव नामक एक बालक को गोद लिया और उसे झांसी का उत्तराधिकारी घोषित किया। उस समय अंग्रेजों का शासन भारत में चल रहा था। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई के बेटे गंगाधर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार किया और झांसी पर कब्जा करने के लिए सेना भेज दी।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य की रक्षा के लिए तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध किया। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई हार गई, हारने के बाद वे कल्पी की ओर चली गई बदले की भावना लेकर अंग्रेजी सेना का कमांडर ह्यूज रोज उनके पीछे-पीछे कल्पी तक आ गया। कल्पी में युद्ध लड़ने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर पहुंच गई। ग्वालियर में फिर अंग्रेजी सैनिक उनके पीछे आ गए। यह रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध का इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई को कई गंभीर चोटें आई हैं, जिस कारण 18 जून 1857 में उनकी मृत्यु हो गई।

Jhansi Rani Lakshmi Bai Speech in Hindi (5 Minute Speech on Rani Lakshmi Bai)

सभागार में मौजूद सभी सम्मानित अथितियों को मेरा नमस्कार, आदरणीय अध्यापक, अध्यापिका और मेरे प्यारे मित्रों को सुबह की नमस्ते। रानी लक्ष्मीबाई का नाम हमारे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। जब भी हम अपने इतिहास को देखते हैं, तो हमें रानी लक्ष्मीबाई का नाम सुसज्जित दिखाई देता है। हमारे भारत देश में कई महान वीरांगनाऐं हुई, जिन्होंने अपने हक के लिए अंग्रेजों से युद्ध किया। रानी अवंतीबाई, रानी लक्ष्मीबाई, रानी अहिल्याबाई, रानी दुर्गावती यह उन महान वीरांगनाओं के नाम है, जिन्होंने सही मायनों में स्त्री शक्ति का परिचय दिया है।

इन वीरांगनाओं ने अपने दुश्मनों के सामने रणचंडी का अवतार लेकर दुश्मनों को स्त्री शक्ति से परिचित कराया है। हमारे देश की एक महान वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 1835 में 19 नवंबर को वाराणसी के पास स्थित एक बाई गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरे पंत तांबे और माता का नाम भागीरथी था।। रानी लक्ष्मी बाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका थ, लेकिन उन्हें प्यार से मनु बुलाया जाता था। रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही बड़ी बहादुर और साहसी थी। उन्होंने छोटी उम्र से ही युद्ध कला सीखना शुरू कर दिया था। वह 14 वर्ष की आयु में ही घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसी युद्ध कलाओं से परिपूर्ण हो गई। रानी लक्ष्मीबाई जब 16 वर्ष की थी, तब उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दिया गया।

इस तरह मणिकर्णिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई शादी के कुछ समय बाद रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्यवश रानी लक्ष्मी बाई के पुत्र का निधन हो गया। रानी लक्ष्मी बाई के पति गंगाधर राव को अपने पुत्र से काफी लगाव था। पुत्र की मृत्यु का गम वह सहन न कर पाए और कुछ दिनों में उनकी भी मृत्यु हो गई। राजा की मृत्यु के बाद झांसी का सिंहासन सुना हो गया। झांसी के सिंहासन को सुना देख अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा करने का सोचा तभी रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव नामक एक बालक को गोद लेकर उसे झांसी का उत्तराधिकारी घोषित किया। अंग्रेजों द्वारा झांसी की रानी किस निर्णय का विरोध किया गया। 

अंग्रेजों ने गोद लिए हुए बालक गंगाधर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया और झांसी पर कब्जा करने की कोशिश की। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध किया, हालांकि अंग्रेजों की सेना काफी अधिक थी, जिस कारण रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध हार गई और वह झांसी से ग्वालियर चली गई। अंग्रेजी सेना के कमांडर ह्यूजरोज ने रानी लक्ष्मी बाई का पीछा किया और पीछा करते-करते वहां ग्वालियर पहुंच गया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने पीछे दुश्मन को आते देख ग्वालियर में फिर अंग्रेजों के साथ युद्ध किया।

इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई ने रणचंडी का अवतार लेकर कई दुश्मनों को मार गिराया। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध का वर्णन करते समय कुछ लोग कहते है, कि युद्ध के समय रानी लक्ष्मीबाई के मुंह में घोड़े की लगाम, दोनों हाथों में तलवार और पीठ दामोदर राव बंधे हुए थे। रानी लक्ष्मी बाई का यह रूप देखकर दुश्मन का कांप उठे लेकिन युद्ध के दौरान उन्हें कुछ गंभीर चोट आई जिसके कारण 18 जून 1857 को रानी लक्ष्मीबाई का निधन हो गया। अपनी स्वतंत्रता के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध का निर्णय लिया यदि वह चाहती तो अंग्रेजी हुकूमत के साथ मिलकर शासन कर सकती थी ,लेकिन किसी के अधीन ना होना यह भावना उन्हें बाकी लोगों से अलग बनाती है। रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना ने भारत की भूमि पर जन्म लिया, यह हम सभी के लिए बड़े गर्व की बात है।

Speech on Bhagat Singh in Hindi

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रानी लक्ष्मी बाई पर भाषण speech on rani lakshmi bai in hindi

Speech on rani lakshmi bai in hindi.

दोस्तों कई बार हमें किसी महान महिला या पुरुष या किसी महापुरुष के बारे में भाषण देने को कहा जाता है आप झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर हमारे द्वारा लिखित इस भाषण से अच्छी तैयारी कर सकते हैं चलिए पढ़ते हैं आज के हमारे इस आर्टिकल को।

speech on rani lakshmi bai in hindi

मेरे प्रिय साथियों नमस्कार मैं कमलेश कुशवाह आप सभी का दिल से स्वागत करता हूं सबसे पहले मैं अपने गुरुजनों को नमन करता हूं जिनकी बदौलत आज में जिस मुकाम पर भी हूं इतना काबिल हूं कि जीवन में आगे बढ़ता जा रहा हूं। मुझे खुशी है कि आज मुझे आप सभी ने एक वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में कुछ कहने का मौका दिया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई वास्तव में एक ऐसी निडर, साहसी देशभक्त थी जिन्होंने अपने गुणों के जरिए हम सभी के दिलों में जगह बनाई हैं।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई नाम ही हर किसी महिला के मन में जोश जुनून पैदा कर सकता है उनको एक प्रेरणा दे सकता है। एक महिला होकर इतनी पराक्रमी निडर और साहसी होना वास्तव में बहुत बड़ी बात है। रानी लक्ष्मी बाई जिनका जन्म 1835 में हुआ था बचपन में उनका नाम मनु था उन्हें सभी प्यार से मनु कहते थे। वह बचपन से ही घुड़सवारी एवं तलवार चलाने में पारंगत थी कुछ ही समय बाद झांसी के राजा से उनका विवाह कर दिया गया विवाह के पश्चात उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन किसी कारणवश उनके पुत्र की मृत्यु हो गई।

पुत्र की मृत्यु के बाद झांसी के राजा इतने दुखी हुए की कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अब झांसी में अकेली हो गईं। झांसी की रानी ने एक पुत्र को गोद ले लिया जिससे वह उनके वंश को आगे बढ़ाएं और झांसी पर राज्य करें लेकिन अंग्रेजों को यह बात पसंद नहीं आई उन्होंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया और झांसी पर कब्जा करने का विचार किया .

कुछ ही समय बाद अंग्रेजो और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बीच युद्ध हुआ इस युद्ध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जी के साथ में अन्य राजा जैसे कि नानासाहेब, तात्या तोपे आदि थे इन सभी ने मिलकर अंग्रेजों का डटकर सामना किया लेकिन काफी कोशिश के बाद भी अंग्रेज झांसी पर अपना कब्जा नहीं कर पाए। कुछ समय बाद जब 1857 में युद्ध हुआ तब रानी लक्ष्मी बाई एवं अन्य राजाओं ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया उन्हें देश से निकालकर भगाने की काफी कोशिश की लेकिन अंत में झांसी पर अंग्रेजों का सम्राज्य हो गया।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर फिर से कब्जा कर लिया था लेकिन किसी देशद्रोही की वजह से उन्हें ग्वालियर छोड़ना पड़ा कुछ समय बाद फिर से युद्ध हुआ इस युद्ध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी तलवार के साथ काफी युद्ध किया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई महान थी, वीर थी वह कभी भी अंग्रेजों के सामने नहीं झुकीं उन्होंने अंग्रेजों का डटकर सामना किया लेकिन अंत में वह वीरगति को प्राप्त हो गई।

वास्तव में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई महान थी उनके इस जोश जुनून और हिम्मत को देखकर देश के युवा भी भारत देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए आगे आए और फिर देश में क्रांति की लहर आ गई और कुछ ही समय बाद हमारा भारत देश अंग्रेजों से पूर्णता आजाद हो गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई वास्तव में हर एक महिला एवं पुरुष के लिए उदाहरण है, हर किसी को झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की तरह साहसी एवं निडर होना चाहिए जब तक यह दुनिया रहेगी तब तक इस महान नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को याद करती रहेगी।

हम सभी को भी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है हम सभी को देश प्रेम की भावना के लिए हर किसी दुश्मन का सामना करना चाहिए, किसी से भी नहीं डरना चाहिए, देश प्रेम को सबसे बढ़कर समझना चाहिए, अगर देश में कोई समस्या हो तो मिलकर समस्या का सामना करना चाहिए इसी आशा और विश्वास के साथ कि हम सभी इस महान नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह कदम से कदम मिलाकर चलेंगे। आप सभी को मेरा धन्यवाद। इन दो लाइनों के साथ मैं अपने शब्दों को समाप्त करता हूं बुंदेलो हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

  • रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध, विचार व नारे Rani Lakshmi Bai Essay, quotes, slogan In Hindi
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झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास

लक्ष्मीबाई उर्फ़ झाँसी की रानी मराठा शासित राज्य झाँसी की रानी थी। जो उत्तर-मध्य भारत में स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी जिन्होंने अल्पायु में ही ब्रिटिश साम्राज्य से संग्राम किया था।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास – Rani Laxmi Bai History in Hindi

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वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई जिन्होनें अपने साहसी कामों से ने सिर्फ इतिहास रच दिया बल्कि तमाम महिलाओं के मन में एक साहसी ऊर्जा का संचार किया है रानी लक्ष्मी बाई जिन्होनें अपने साहस के बल पर कई राजाओं को हार की धूल चटाई। महारानी लक्ष्मी बाई ने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए कई लड़ाई लड़कर इतिहास के पन्नों पर अपनी विजयगाथा लिखी है।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य झांसी की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राज्य के खिलाफ लड़ने का साहस किया और वे बाद में वीरगति को प्राप्त हुईं। लक्ष्मी बाई के वीरता के किस्से आज भी याद किए जाते हैं। रानी लक्ष्मी बाई ने अपने बलिदानों और साहसी कामों से न सिर्फ भारत देश को बल्कि पूरी दुनिया की महिलाओं का सिर गर्व से ऊंचा किया है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जीवन देशभक्ति, अमर और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

प्रारंभिक जीवन –

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी के भदैनी नगर में हुआ था उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था जिन्हें सब प्यार से मनु कहकर पुकारते थे।

उनके पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। उनके पिता बिठुर में न्यायालय में पेशवा थे और उनके पिता आधुनिक सोच के व्यक्ति थे जो कि लड़कियों की स्वतंत्रता और उनकी पढ़ाई- लिखाई में भरोसा रखते थे। जिसकी वजह से लक्ष्मी बाई अपने पिता से काफी प्रभावित थी। उनके पिता ने रानी के बचपन से ही उनकी प्रतिभा को पहचान लिया था इसलिए उन्हें बचपन से ही उस दौर में भी अन्य लड़कियों के मुकाबले ज्यादा आजादी भी दी गई थी।

उनकी मां का नाम भागीरथीबाई था जो कि एक घरेलू महिला थी। जब ने 4 साल की थी तभी उनकी माता की मौत हो गई जिसके बाद उनके पिता ने लक्ष्मी बाई का पालन-पोषण किया।

आपको बता दें कि उनके पिता जब मराठा बाजीराव की सेवा कर रहे ते तभी रानी के जन्म के समय ज्योतिष ने मनु (लक्ष्मी बाई) के लिए भविष्यवाणी की थी और कहा था कि वे बड़ी होकर एक राजरानी होगी और हुआ भी ऐसे ही कि वे बड़ी होकर एक साहसी वीर झांसी की रानी बनी और लोगों के सामने अपनी वीरता की मिसाल पेश की। महारानी लक्ष्मी बाई ने अपनी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ आत्म रक्षा, घुड़सवारी, निशानेबाजी और घेराबंदी की ट्रेनिंग ली थी जिससे वे शस्त्रविद्याओं में निपुण हो गईं।

बचपन –

मनु बाई बचपन से ही बेहद सुंदर थी उनकी छवि मनमोहक थी जो भी उनको देखता था उनसे बात करे बिना नहीं रह पाता था। उनके पिता भी मनु बाई की सुंदरता की वजह से उन्हें छबीली कहकर बुलाते थे। वहीं लक्ष्मी बाई की मां की मौत के बाद उनके पिता उन्हें बाजीराव के पास बिठूर ले गए थे जहां रानी लक्ष्मी बाई का बचपन बीता।

आपको बता दें कि बाजीराव के पुत्रों के साथ मनु खेल-कूद मनोरंजन करती थी और वे भाई-बहन की तरह रहते थे। वे तीनों साथ में खेलते थे और साथ में पढ़ाई-लिखाई भी करते थी। इसके साथ ही मनु बाई निशानेबाजी, घुड़सवारी, आत्मरक्षा, घेराबंदी की ट्रेनिंग भी लेती थी।

इसके बाद शस्त्रविद्याओं में निपुण होती चली गईं साथ एक अच्छी घुड़सवार भी बन गई। आपको बता दें कि बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र चलाना और घुड़सवारी करना लक्ष्मी बाई के दो प्रिय खेल थे।

शिक्षा –

मनु बाई बचपन में पेशवा बाजीराव के पास रहती थी। जहां उन्होनें बाजारीव के पुत्रों के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई की। आपको बता दें कि बाजीराव के पुत्रों को पढ़ाने एक शिक्षक आते थे मनु भी उनके पुत्रों के साथ उसी शिक्षक से पढ़ती थीं।

नाना साहब की लक्ष्मी बाई को चुनौती:

रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी के किस्से बचपन से ही थी। जी हां वे बड़ी से बड़ी चुनौतियां का भी बड़ी समझदारी और होशयारी से सामना कर लेती हैं। ऐसे ही एक बार जब वे घुड़सवारी कर रही थी तब नाना साहब ने मनु बाई से कहा कि अगर हिम्मत है तो मेरे घोड़े से आगे निकल कर दिखाओ फिर क्या था मनु बाई ने नानासाहब की ये चुनौती मुस्कराते हुए स्वीकार कर ली और नानासाहब के साथ घुड़सवारी के लिए तैयार हो गई।

जहां नानासाहब का घोड़ा तेज गति से भाग रहा था वहीं लक्ष्मी बाई के घोड़ा भी उसे पीछे नहीं रहा, इस दौरान नानासाहब ने लक्ष्मी बाई के आगे निकलने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे और इस रेस में वे घोड़े से नीचे गिर गए इस दौरान नाना साहब की चीख निकल पड़ी ”मनु मै मरा” जिसके बाद मनु ने अपने घोड़े को पीछे मोड़ लिया और नाना साहब को अपने घोड़े में बिठाकर अपने घर की तरफ चल पड़ी।

इसके बाद न सिर्फ नानासाहब ने मनु को शाबासी दी बल्कि उनकी घुड़सवारी की भी तारीफ की और कहा कि मनु तुम घोड़ा बहुत तेज दौड़ाती हो तुमने तो कमाल ही कर दिया। उन्होनें मनु के सवाल पूछने पर ये भी कहा कि – तुम हिम्मत वाली हो और बहादुर भी। इसके बाद नानासाहब और रावसाहब ने मनु बाई की प्रतिभा को देख उन्हें शस्त्र विद्या भी सिखाई।

मनु ने नानासाहब से तलवार चलाना, भाला-बरछा फैकना और बंदूक से निशाना लगाना सीख लिया। इसके अलावा मनु व्यायामों में भी प्रयोग करती थी वहीं कुश्ती और मलखंभ उनके प्रिय व्यायाम थे।

विवाह –

रानी लक्ष्मी बाई की शादी महज 14 साल की उम्र में उत्तर भारत में स्थित झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवालकर  के साथ हो गया। इस तरह काशी की मनु अब झांसी की रानी बन गईं। आपको बता दें कि शादी के बाद उनका नाम लक्ष्मी बाई रखा गया था। उनका वैवाहिक जीवन सुख से बीत रहा था इस दौरान 1851 में उन दोनों को पुत्र को प्राप्ति हुई जिसका नाम दामोदर राव रखा गया।

उनका वैवाहिक जीवन काफी सुखद बीत रहा था कि लेकिन दुर्भाग्यवश वह सिर्फ 4 महीने से जीवित रह सका। जिससे उनके परिवार में संकट के बादल छा गए। वहीं पुत्र के वियोग में महाराज गंगाधर राव नेवालकर बीमार रहने लगे। इसके बाद महारानी लक्ष्मी बाई और महाराज गंगाधर ने अपने रिश्तेदार का पुत्र को गोद लेना का फैसला लिया।

गोद लिए गए पुत्र के उत्तराधिकार पर ब्रिटिश सरकार कोई दिक्कत नहीं करे इसलिए उन्होनें ब्रिटिश सरकार की मौजूदगी में पुत्र को गोद लिया बाद में य़ह काम ब्रिटिश अफसरों की मौजूदगी में पूरा किया गया आपको बता दें कि इस गोद लिए गए बालक का नाम पहले आनंद राव था जिसे बाद में बदलकर दामोदर राव रखा गया।

रानी लक्ष्मी बाई ने संभाला राज-पाठ:

लगातार बीमार रहने के चलते एक दिन महाराज गंगाधर राव नेवालकर की तबीयत ज्यादा खराब हो गई और 21 नवंबर 1853 को उनकी मृत्यु हो गई। उस समय रानी लक्ष्मी बाई महज 18 साल की थी।

पुत्र के वियोग के बाद राजा की मौत की खबर से रानी काफी आहत हुईं लेकिन इतनी कठिन परिस्थिति में भी रानी ने धैर्य नहीं खोया वहीं उनके दत्तक पुत्र दामोदर की आयु कम होने की वजह से उन्होनें राज्य का खुद उत्तराधिकारी बनने का फैसला लिया। उस समय लार्ड डलहौजी गर्वनर था।

रानी के उत्तराधिकारी बनने पर ब्रिटिश सरकार ने किया था विरोध:

महारानी लक्ष्मी बाई धैर्यवान और साहसी महिला थी इसलिए वे हर काम को बड़ी सूझबूझ और समझदारी से करती थी यही वजह थी वे राज्य का उत्तराधिकारी बनी रही। दरअसल जिस समय रानी को उत्तरधिकारी बनाया गया था उस समय यह नियम था कि अगर राजा का खुद का पुत्र हो तो उसे उत्तराधिकारी बनाया जाएगा। अगर पुत्र नहीं है तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला दिया जाएगा।

इस नियम के चलते रानी को उत्तराधिकारी बनने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा वहीं ब्रिटिश शासकों ने राजा गंगाधर राव नेवालकर की मौत का फायदा उठाने की तमाम कोशिशें की और वे झांसी को ब्रिटिश शासकों में मिलाना चाहते थे।

ब्रिटिश सरकार ने झांसी राज्य को हथियाने की हर कोशिश कर ली यहां तक कि ब्रिटिश शासकों ने महारानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। यहां तक कि निर्दयी शासकों ने रानी के राज्य का खजाना भी जब्त कर लिया इसके साथ ही राजा नेवालकर ने जो कर्ज लिया था।

उसकी रकम, रानी लक्ष्मी बाई के सालाना आय से काटने का फैसला सुनाया। जिसकी वजह से लक्ष्मी बाई को झांसी का किला छोड़कर झांसी के रानीमहल में जाना पड़ा। इस कठिन संकट से भी रानी लक्ष्मी बाई फिर भी घबराई नहीं। और वे अपने झांसी राज्य को ब्रिटिश शासकों के हाथ सौंपने नहीं देने के फैसले पर डटी रहीं।

महारानी लक्ष्मी बाई ने झांसी को हर हाल में बचाने की ठान ली और अपने राज्य को बचाने के लिए सेना संगठन शुरु किया।

साहसी रानी के संघर्ष की शुरुआत – (”मै अपनी झांसी नहीं दूंगी”)

झांसी को पाने की चाह रखने वाले ब्रिटिश शासकों ने 7 मार्च, 1854 को एक सरकारी गजट जारी किया था। जिसमें झांसी को ब्रिटिश सम्राज्य में मिलाने का आदेश दिया गया था। जिसके बाद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश शासकों के इस आदेश का उल्लंघन करते हुए कहा कि ( Rani Laxmi Bai Dialogue ) –

”मै अपनी झांसी नहीं दूंगी”

जिसके बाद ब्रिटिश शासकों के खिलाफ विद्रोह तेज हो गया। इसके बाद झांसी को बचाने में जुटी महारानी लक्ष्मी बाई ने कुछ अन्य राज्यों की मद्द से एक सेना तैयार की, जिसमें बड़े पैमाने पर लोगों ने अपनी भागीदारी निभाई वहीं इस सेना में महिलाएं भी शामिल थी, जिन्हें युद्ध में लड़ने के लिए ट्रेनिंग दी गई थी इसके अलावा महारानी लक्ष्मी बाई की सेना में अस्त्र-शस्त्रों के विद्धान गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, काशी बाई, मोतीबाई, सुंदर-मुंदर, लाला भाऊ बक्शी, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह समेत 1400 सैनिक शामिल थे।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई की भूमिका –

10 मई, 1857 को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरु हो गया। इस दौरान बंदूकों की गोलियों में सूअर और गौमांस की परत चढ़ा दी गई जिसके बाद हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं काफी आहत हुईं इसी वजह से पूरे देश में आक्रोश फैल गया था जिसके बाद ब्रिटिश सरकार को इस विद्रोह को न चाहते हुए भी दबाना पड़ा और झांसी को महारानी लक्ष्मी बाई को सौंप दिया।

इसके बाद 1857 में उनके पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर हमला कर दिया लेकिन महारानी लक्ष्मी बाई ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया और जीत हासिल की।

1858, में फिर अंग्रेजों ने किया झांसी पर हमला:

मार्च 1858 में एक बार फिर झांसी राज्य में कब्जा करने की जीद में अंग्रेजों ने सर हू्य रोज के नेतृत्व में झांसी पर हमला कर दिया। लेकिन इस बार झांसी को बचाने के लिए तात्या टोपे के नेतृत्व में करीब 20,000 सैनिकों के साथ लड़ाई लड़ी। यह लड़ाई करीब 2 हफ्ते तक चली।

इस लड़ाई में अंग्रेजों ने झांसी के किले की दीवारें तोड़कर यहां कब्जा कर लिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सैनिकों में झांसी में लूट-पाट शुरु कर दी इस संघर्ष के समय में भी रानी लक्ष्मी बाई ने साहस से काम लिया और किसी तरह अपने पुत्र दामोदर राव को बचाया।

तात्या टोपे के साथ काल्पी की लड़ाई –

1858 के युद्ध में जब अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया इसके बाद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई अपने दल के साथ काल्पी पहुंची। यहां तात्या टोपे ने महारानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। इसके साथ ही वहां के पेशवा ने वहां की हालत को देखते हुए रानी को कालपी में शरण दी इसके साथ ही उन्हें सैन्य बल भी दिया।

Rani Laxmi Bai Statue

22 मई 1858, को अंग्रेजी शासक सर हू्य रोज ने काल्पी पर हमला कर दिया तभी रानी ने अपनी साहस का परिचय देते हुए अंग्रेजों को हार की धूल चटाई जिसके बाद अंग्रेज शासकों को पीछे हटना पड़ा। वहीं हार के कुछ समय बाद फिर से सर हू्य रोज ने काल्पी पर हमला कर दिया लेकिन इस बार वे जीत गए।

महारानी लक्ष्मी बाई को ग्वालिर पर अधिकार लेने का सुझाव –

काल्पी की लड़ाई में मिली हार के बाद राव साहेब पेशवा, बन्दा के नवाब, तात्या टोपे और अन्य मुख्य योद्दाओं ने महारानी लक्ष्मी बाई को ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव दिया। जिससे रानी अपनी मंजिल तक पहुंचने में सफल हो सके फिर क्या था।

हमेशा अपने लक्ष्य पर अडिग रहने वाली महारानी लक्ष्मी बाई ने तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के महाराजा के खिलाफ लड़ाई की लेकिन इस लड़ाई में तात्या टोपे ने पहले ही ग्वालियर की सेना को अपनी तरफ मिला लिया था वहीं दूसरी तरफ अग्रेज भी अपनी सेना के साथ ग्वालियर आ धमके थे लेकिन इस लड़ाई में ग्वालियर के किले पर जीत हासिल की इसके बाद उन्होनें ग्वालियर का राज्य पेशवा को सौंप दिया।

मृत्यु –

17 जून 1858, में रानी लक्ष्मी बाई ने किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ लड़ाई लड़ी और ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र का मोर्चा संभाला इस युद्ध में रानी के साथ उनकी सेविकाओं ने भी उनका साथ दिया। लेकिन इस युद्द में रानी का घोडा़ नया था क्योंकि रानी का घोड़ा ‘राजरतन’ पिछले युद्द में मारा गया था।

इस युद्ध में रानी को भी अंदेशा हो गया था कि ये उनके जीवन की आखिरी लड़ाई है। वे इस स्थिति को समझ गई और वीरता के साथ युद्ध करती रहीं। लेकिन इस युद्द में रानी बुरी तरह घायल हो चुकी ती और वे घोड़े से गिर गईं। रानी पुरुष की पोषाक पहने हुए थे इसलिए अंग्रेज उन्हें पहचान नहीं पाए और रानी को युद्ध भूमि में छोड़ गए।

इसके बाद रानी के सैनिक उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गए और उन्हें गंगाजल दिया जिसके बाद महारानी लक्ष्मी ने अपनी अंतिम इच्छा बताते हुए कहा कि ”कोई भी अंग्रेज उनके शरीर को हाथ नहीं लगाए ”।

इस तरह 17 जून 1858 को कोटा के सराई के पास रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में वीरगति को प्राप्ति हुईं। साहसी वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई ने हमेशा बहादुरी और हिम्मत से अपने शत्रुओं को पराजित कर वीरता का परिचय किया और देश को स्वतंत्रता दिलवाने में उन्होनें अपनी जान तक न्यौछावर कर दी।

वहीं युद्ध लड़ने के लिए रानी लक्ष्मी के पास न तो बड़ी सेना थी और न ही कोई बहुत बड़ा राज्य था लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मी बाई ने इस स्वतंत्रता संग्राम में जो साहस का परिचय दिया था, वो वाकई तारीफ-ए- काबिल है। रानी की वीरता की प्रशंसा उनके दुश्मनों ने भी की है। वहीं ऐसी वीरांगनाओं से भारत का सिर हमेशा गर्व से ऊंचा रहेगा। इसके साथ ही रानी लक्ष्मी बाई बाकि महिलाओं के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं।

उपलब्धिया –

  • पती की मृत्यू के बाद रानी ने अपने राज्य झांसी की कमान खुद संभालने का निर्णय लिया था, जिसमे उन्हे अंग्रेजो से और नजदीकी संस्थानो के राजाओ से बहुत बार विरोध और युध्द जैसे हालात का भी सामना करना पडा था। पर वो अंतिम वक्त तक अडिग रही, पर उसने अपना शासन मृत्यू तक अंग्रेजो को नही सौपा।
  • रानी ने अपने राज्य मे सेना को तैयार करने पर और उसे मजबूत करने पर बहुत ज्यादा कार्य किया था, जिसमे उन्होने महिलाओ को भी सेना मे भर्ती कराया था।
  • सितम्बर 1857 मे रानी के राज्य झांसी पर पडोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओ ने आक्रमण किया था, जिसका पूर्णतः पराजय कर रानी ने अपने सामर्थ्य का लोहा मनवाया था।
  •  अंग्रेज कैप्टन ह्यु रोज ने रानी लक्ष्मीबाई के बारे मे गौरव शब्द कहे थे के,”1857 के विद्रोह की रानी लक्ष्मीबाई सबसे खतरनाक विद्रोही के रूप मे सामने आयी थी, जिसने अपने सुझ बुझ, साहस और निडरता का परिचय देकर अंग्रेजो का कडवा प्रतिकार किया था”
  • भारतीय इतिहास मे रानी लक्ष्मीबाई को शहीद वीरांगना के रूप मे पहचाना जाता है, जो साहस, शूर विरता और नारी शक्ती के रूप मे आदर्श मानी जाती है।
  • रानी लक्ष्मीबाई के अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष ने बादमे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे सभी को बल देने का कार्य किया जिसमे वो खासकर महिलाओ के लिये प्रेरणा स्त्रोत के रूप मे स्मरणीय रही।

कथन/वचन –

Rani Laxmi Bai Images with Quotes

  • “यदि युध्द के मैदान मे हार गये और मारे गये तो निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करेंगे।”
  • “मै अपने झांसी का आत्म समर्पण नही होने दुंगी।”
  •  “मैदाने जंग मे मारना है, फिरंगी से नही हारना है।”
  •  “हम स्वयं को तैयार कर रहे है, यह अंग्रेजो से लडने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।”
  • “उन्होने कैदियो को अपनी रोटी खाने के लिए मजबूर किया, वे हड्डियों को पावडर मे बदलते है और फिर आटा,शक्कर आदि वस्तूए एक साथ मिलाकर उसे बिक्री के लिए उजागर करते है।”

किताबें और फिल्में –

झांसी की रानी का बहादुरी का वर्णन सुभद्रा चौहान ने ‘झांसी की रानी’ समेत अपनी कई कविताओं में किया है इसमें से कई भारतीय स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं। इसके साथ ही रानी लक्ष्मीबाई को भारतीय उपन्यासों, कविता और फिल्मों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में भी चित्रित किया गया है।

यही नहीं महारानी लक्ष्मी बाई के जीवन पर कई फिल्में और टेलीविजन सीरीज बनाई गई हैं। ‘द टाइगर एंड द फ्लेम’ (1953) और ‘माणिकर्णिका: ‘द क्वीन ऑफ झांसी’ (2018) हैं, ‘झांसी की रानी’ (2009) उनके जीवन पर आधारित फिल्मे हैं। लक्ष्मीबाई की बहादुरी का वर्णन करते हुए कई किताबें और कहानियां भी लिखी गई हैं।

जिनमे से सुभद्रा कुमारी चौहान ‘झांसी की रानी’ (1956) लिखी जबकि जयश्री मिश्रा ने ‘रानी’ (2007) लिखी हैं। इसके अलावा एक वीडियो गेम ‘द ऑर्डर: 1886’ (2015) भी रानी लक्ष्मी बाई के जीवन से प्रेरित था।

विशेषताएं –

  • लक्ष्मी बाई रोजाना योगाभ्यास करती थी रानी लक्ष्मी बाई की दिनचर्या में योगाभ्यास शामिल था।
  • रानी लक्ष्मी बाई को अपनी प्रजा से बेहद लगाव और स्नेह था वे अपनी प्रजा का बेहद ध्यान रखती थी।
  • रानी लक्ष्मी बाई गुनहगारों को उचित सजा देने की हिम्मत रखती थी।
  • सैन्य कार्यों के लिए रानी लक्ष्मी बाई हमेशा उत्साहित रहती थी इसके साथ ही वे इन कार्यों में निपुण भी थी।
  • रानी लक्ष्मी बाई को घोडो़ं की भी अच्छी परख थी उनकी घुड़सवारी की प्रशंसा बड़े-बड़े राजा भी करते थे।

Rani Laxmi Bai Stamp

महारानी लक्ष्मी बाई एक विरासत के रूप में रानी की बहादुरी की गाथा कई पीढ़ियों तक याद रखी जाए इसलिए झांसी में महारानी लक्ष्मी बाई मेडिकल कॉलेज, ग्वालियर में लक्ष्मीबाई नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ फिजिकल एजुकेशन और झांसी में रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय का नाम उनके सम्मान में रखा गया है।

इसके साथ ही वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई की प्रतिमाएं अपने बेटे के साथ भारत भर में कई स्थानों पर बनी हुईं हैं। भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झाँसी की रानी एक आदर्श वीरांगना थी।

सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नही घबराता। उसका लक्ष्य हमेशा उदार और उच्च होता है। वह सदैव आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ट होता है। और ऐसी ही वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।

पढ़े:  वीरांगना झलकारी बाई का इतिहास

ऐसी वीरांगना के लिए हमें निम्न पंक्तिया सुशोभित करने वाली लगती है। –

“सिंहासन हिल उठे, राजवंशो ने भृकुटी तानी थी। बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नयी जवानी थी। गुमी हुई आज़ादी की कीमत, सबने पहचानी थी। दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी। बुंदेले हरबोलों के मुह, हमने सुनी कहानी थी। खुब लढी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी!!”

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रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध  hindi essay on rani laxmi bai (jhasi ki rani).

प्रस्तावना :- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई वह भारतिय विरांगना थी। जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए रणभूमि में हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। भारत स्वतंत्रता के लिए सन 1857 में लड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास इन्होंने ही अपने रक्त से लिखा था। हम सब के लिए उनका जीवन आदर्श के रूप में है।

लक्ष्मीबाई का जन्म:- लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मनुबाई था। ये नाना जी पेशवा राव की मुहबोली बहन थी। उन्ही के साथ खेलकूद कर ये बड़ी हुई है। वो इन्हें प्यार से छबीली कह कर पुकारते थे। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपन्त था। और उनकी माँ का नाम भागीरथी बाई था। ये मूलतः महाराष्ट्र के रहनेवाले थे। लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवम्बर सन 1835 ई.को काशी में हुआ था। और लक्ष्मीबाई का पालन-पोषण बिठूर में हुआ था। जब वो चार-पांच शाल की थी, तब ही इनकी माँ का देहांत हो गया था। बचपन से ही वो पुरुषों के साथ ही खेलना-कूदना, तीर तलवार चलाना , घुड़सवारी करना , आदि करने के कारण उनके चरित्र में भी वीर पुरषों की तरह गुणों का विकास हो गया था। बाजीराव पेशवा ने अपनी स्वतंत्रता की कहानियों से लक्ष्मीबाई के ह्रदय में उनके प्रति बहुत प्रेम उतपन्न कर दिया था।

लक्ष्मीबाई का विवाह:- सन 1842 ई.में मनुबाई का विवाह झाँसी के अंतिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ था। विवाह के बाद ये मनुबाई, ओर छबीली से रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी थी। इस खुशी में राजमहल में आनन्द मनाया गया। घर-घर मे दिया जलाए गए। विवाह के नो वर्ष बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परन्तु वो जन्म के तीन महीने बाद ही चल बसा। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गए। तब उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया। कुछ समय बाद सन 1853 ई.में राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए। उनकी मृतु के बाद अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को अनाथ ओर असहाय समझ कर उनके दत्तक पुत्र को अवैध घोषित कर दिया। और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़ने को कहने लगे। परन्तु लक्ष्मीबाई ने साफ शब्दों में उनको उत्तर भेज दिया, ओर कहा झांसी मेरी है, ओर में “इसे प्राण रहते इसे नही छोड़ सकती”।

रानी लक्ष्मीबाई की मृतु: – तभी से रानी ने अपना सारा जीवन झाँसी को बचाने के संघर्ष और युधो में ही व्यतीत किया। उन्होंने गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी शक्ति संचय करनी प्रारंभ कर दी। अवसर पाकर एक अंग्रेज सेनापति ने रानी को साधारण स्त्री समझ के झाँसी पर आक्रमण कर दिया परन्तु रानी पूरी तैयारी किये बैठी थी। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खटे कर दिए। अंत मे लक्ष्मीबाई को वहां से भाग जाने के लिए विवश होना पड़ा। झाँसी से निकल कर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पोहची ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया परन्तु लड़ते-लड़ते वह भी स्वर्गसिधार गयी।

उपसंहार :- इस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई ने एक नारी हो कर पुरुषों की भांति अंग्रेजो से लड़कर उनकी हालात खराब कर दिया था और उन्हें बता दिया कि स्वतंत्रता के लिए तुम अंग्रेजों के लिए एक महिला ही काफी है।वह मर कर भी अमर हो गयी। और स्वतंत्रता की ज्वाला को भी अमर कर गयी । उनके जीवन की एक -एक घटना आज भी भारतीयों में नवस्फूर्ति ओर नवचेतना का संचार कर रही है।

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा झाँसी की रानी पर लिखी ये कविता में उनके जीवन का पूरा व्रतांत है। और ये कविता विख्यात है।

“सिंहासन हिल उठे राजवंशो ने भुकुटी तानी थी। बूढ़े भारत मे आई फिर से नई जवानी थी। गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी। दूर फिरंगी को करने की सबने मन मे ठानी थी। बुंदेले हर बोलो के मुँह हमने सुनी कहा थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”

rani laxmi bai essay in hindi

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रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध- Rani Laxmi Bai Essay in Hindi

In this article, we are providing Rani Laxmi Bai Essay in Hindi  | Rani Laxmi Bai   Par Nibandh रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध  हिंदी | Nibandh in 100, 200, 250, 300, 500 words For Students & Children.

दोस्तों आज हमने Rani Lakshmi Bai Essay in Hindi लिखा है रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध  हिंदी में कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 ,10, और 11, 12 के विद्यार्थियों के लिए है। Rani Lakshmi Bai   information in Hindi essay & Speech.

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध- Rani Laxmi Bai Essay in Hindi

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध- Short Essay on Rani Laxmi Bai in Hindi ( 150 words )

‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ – झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को बच्चा-बच्चा जानता है।

लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मन था। उनका जन्म सन 1835 में बनारस में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था।

मनु को घुड़सवारी, तलवार चलाना और तीर चलाना अच्छा लगता था। सब उसे छबीली भी कहते थे।

मनु बहुत चतुर थी। उसने बचपन में ही संस्कृत, हिंदी और मराठी सीख ली थी। सन् 1842 में उसका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। रानी ने दामोदर राव नाम के एक बालक को गोद लिया। अंग्रेज़ उनके राज्य को हड़पना चाहते थे। रानी ने स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ किया। देश के लिए लड़ते-लड़ते वह शहीद हो गईं। 17 जून, 1857 की शाम देश कभी भुला नहीं सकता। देश ने एक वीरांगना को खो दिया।

जरूर पढ़े- 10 Lines on Rani Lakshmi Bai in Hindi

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध- Rani Laxmi Bai Essay in Hindi ( 300 words )

भारत की वीर नारियों में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है। देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली लक्ष्मीबाई पर भारत माता को गर्व है। भारत के इतिहास में ऐसी वीरांगना का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है।

लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। इनका जन्म 1835 ई. में सतारा के निकट बाई नामक स्थान पर हुआ। इनकी माता का नाम भागीरथी था जो मनु को चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर चल बसी थीं। मनु के पिता का नाम मोरो पंत था। वे बिठूर के पेशवा के यहाँ नौकरी करते थे। मनु बचपन में पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना साहब के साथ खेला करती थी। बचपन में मनु को पुरुषों के खेलों में रुचि थी। तीर चलाना, तलवार चलाना और घुड़सवारी मनु ने बचपन में सीख लिया था ।

मनु का विवाह बचपन में झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया। इस प्रकार वह मनु के स्थान पर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाई। जिनका एक पुत्र भी ची हुआ किन्तु उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। इस आघात को गंगाधर राव न सहन कर सके, और स्वर्ग सिधार, गए। उन्होंने एक बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र बनाया। अंग्रेजों ने इसकी आज्ञान न दी। अतः अंग्रेजों से लोहा लेने की वे प्रतीक्षा करने लगी।

सन् 1857 में विदेशी शासन के विरुद्ध आग भड़क उठी-मेरठ, कानपुर लखनऊोआदि मे क्रांति की ज्वाला भड़क ऊठी | इस अवसर पर लक्ष्मीबाई के सैनिकों और तोपचियों ने अंग्रेजी सेना के जनरल हयूरोज को छठी का दूध याद करा दिया। कालपी जाते समय लक्ष्मीबाई का मुकाबला जनरल बौकर ने किया। उसे भी मुँह की खानी पड़ी। सेना के लिए साधन जुटाने के लिए रानी ने ग्वालियर के, विलासी राजा से दुर्ग छीन प्लिया और अपनी, सेना संगठित की। दामोदर राव को पीछे बाँधे दोनों में हाथों में तलवार लिये और मुँह में घोड़े की लगाम, लिए वह शत्रुओं का डटकर मुकाबला करती रही। युद्ध में बहुत घायल होने पर वह अपने घोड़े को लेकर एक और निकल गई। रानी का नया घोड़ा नाला पार न कर सका। एक साधु की कुटिया के पास रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। रानी द्वारा लगाई आजादी की चिंगारी धीरे-धीरे सुलगती रही और अन्त में देश 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हो गया।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध- Long Rani Laxmi Bai Essay in Hindi ( 600 words )

भूमिका

अनेक भारतीय वीरांगनाओं ने देश के हित के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, उन्हीं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम भी अमर है । इतिहास इस बात का साक्षी है कि सन् 1857 में सुलगती हुई स्वतन्त्रता की चिनगारी 1950 ई० में पूर्णतया प्रकाशित हो उठी थी।

जन्म और शैशवकाल

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म सन् 1835 ई० को ‘सतारा के समीप ‘बाई’ नामक ग्राम में हुआ था। इनका नाम मनुबाई था। इनके पिता मोरोपंतबिठुर के पेशवा बाजीराव के विश्वासपात्र कर्मचारी थे। उनकी माता भागीरथी देवी का स्नेहांचल चार वर्ष की अल्पावस्था में ही इनके सिर से उठ गया था । इनका बचपन वाजीराव पेशवा के पुत्र नाना साहब के साथ बीता । वे अपनी इस मुंहबोली बहन को छबीली कह कर पुकारते थे। इन्हें शैशवकाल से ही पुरुषों के खेलों में रुचि थी। ये शैशवावस्था में ही शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या में पूर्णतया दक्ष हो गई थी।

विवाह | पुत्र और पति की मृत्यु

16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया । इस प्रकार छबीली ने झांसी की रानी बनकर झांसी के दुर्ग में प्रवेश किया। इन्होंने राजसी सुख भोगते हुए एक पुत्र को जन्म दिया पर विधाता ने उसे अधिक दिन तक जीवित नहीं रखा । राजा गंगाधर राव वृद्धावस्था में पुत्र के वियोग को सहन न कर सके । कुछ ही दिन के बाद वे भी चल बसे । महारानी ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को गद्दी पर बिठाया। इसे अंग्रेज सरकार सहन न कर सकी । लार्ड डलहौजी ने झांसी को अपने राज्य में मिलाने की आज्ञा दे दी और रानी लक्ष्मीबाई की पेंशन बांध दी। रानी लक्ष्मीबाई हुंकार उठी, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’ इसके साथ ही वे अवसर की ताक में रहने लगीं।

अंग्रेजों से टक्कर | झांसी, कालपी और ग्वालियर में संघर्ष

इसी बीच सन् 1857 की प्रथम क्रांति आरम्भ हो गई । भारतीय सपूतों ने राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने की ठान ली। सारे राष्ट्र में विद्रोहाग्नि भड़क उठी। सेना ने विद्रोह कर दिया । कानपुर, लखनऊ, मेरठ, भोपाल आदि नगरों में यह अग्नि भयंकर रूप से भड़क उठी । भारतीय सपूतों ने दिल्ली के लालकिले पर अधिकार कर लिया । रानी लक्ष्मीबाई ने भी इस अवसर से लाभ उठाया । सैनिक पहले से ही तैयार बैठे थे। संकेत पाते ही उन्होंने और तोपचियों ने शत्रु सेना के जनरल ह्यू रोज को छठी का दूध याद करा दिया। रानी ने रणचण्डी का रूप धारण किया तभी कालपी से तात्या टोपे 20 सहस्र सैनिक लेकर झांसी की रानी की सहायता के लिए आए पर दुर्भाग्य ने इनका साथ नहीं दिया। उस समय भी जयचन्दों की कमी नहीं थी। नत्थे खां ने अंग्रेजों को झांसी के दुर्ग का भेद दे दिया । फलतः रानी को दुर्ग छोड़ना पड़ा और ये अपने वीरों के साथ कालपी की ओर बढ़ी । जनरल वोकर ने इनका पीछा किया, उसे मुंह की खानी पड़ी।

उधर ह्यू रोज भी रानी लक्ष्मीबाई का पीछा करता हुआ कालपी आ पहुंचा। झांसी की रानी ने उसका डट कर समाना किया और फिर अपने साथियों के साथ ग्वालियर की ओर बढ़ी । ग्वालियर नरेश विलासी और अंग्रेजों का पक्षपाती था। रानी ने उससे. दुर्ग छीन लिया और सैन्य संगठन में जुट गई । कुछ ही दिनों बाद इनका पता ह्यू रोज को लग गया। वह अपमान का बदला लेने के लिए विशाल सेना के साथ वहां पहुंच गया।

गति

रानी लक्ष्मीबाई ने रणचण्डी बनकर अंग्रेजों से लोहा लिया। घोड़े पर सवार रानी के मुख में लगाम थी, दोनों हाथों में तलवार थी और पीछे पीठ पर दामोदर राव को बांध रखा था। रानी अधिक देर तक विशाल सेना का सामना न कर सकी। घायलावस्था में विवश होकर घोड़ा दौड़ना पड़ा। दो अंग्रेज इनका पीछा कर रहे थे। घोड़ा नया होने के कारण नाले पर पहुंच कर रुक गया। इस विवशता में रानी ने उन दोनों अंग्रेजों का सामना किया। उन्हें मार कर स्वंय भी बेदम हो गई। पास में ही साधु की कुटिया थी। उसने रानी का दाह संस्कार कर दिया।

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इस लेख के माध्यम से हमने Rani Laxmi Bai Par Nibandh | Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi  का वर्णन किया है और आप यह निबंध नीचे दिए गए विषयों पर भी इस्तेमाल कर सकते है।

Hindi essay on Rani Lakshmi Bai Rani Lakshmi Bai Par Lekh Paragraph on Rani Lakshmi Bai in Hindi

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रानी लक्ष्मीबाई जीवनी: जन्म, परिवार, जीवन इतिहास मृत्यु और कविता

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रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध

Hindi Essay on Rani Laxmi Bai (Jhasi ki Rani)

रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी: लक्ष्मीबाई भारत के उत्तर प्रदेश में झांसी की मराठा रियासत की रानी थीं।

लक्ष्मीबाई, झाँसी की रानी भारत के उत्तर प्रदेश में झांसी की मराठा रियासत की रानी थीं। लक्ष्मीबाई ने 1857 में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विद्रोह में सक्रिय रूप से भाग लिया।

Table of Contents

रानी लक्ष्मीबाई: जन्म, परिवार और शिक्षा

jhansi ki rani

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को मणिकर्णिका के रूप में एक ब्राह्मण परिवार में मोरोपंत तांबे (पिता) और भागीरथी सप्रे (माता) हुआ था। जब चार साल की थी तब लक्ष्मीबाई की माँ का देहांत हो गया। उनके पिता ने बिठूर जिले के पेशवा बाजी राव द्वितीय के लिए काम किया था।

रानी लक्ष्मीबाई को घर पर ही शिक्षित करा गया था और वह पढ़-लिख सकती थीं। उन्हें निशानेबाजी, घुड़सवारी, तलवारबाजी और मल्लखंभ के लिए भी प्रशिक्षित किया गया था। उनके तीन घोड़े थे – सारंगी, पावन और बादल।

रानी लक्ष्मीबाई: व्यक्तिगत जीवन

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मई 1852 में, मणिकर्णिका की शादी गंगाधर राव नयालकर (झाँसी के महाराजा) से हुई थी और बाद में परंपराओं के अनुसार उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया था। 1851 में, लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को जन्म दिया, जिनकी 4 महीने बाद मृत्यु हो गई। इस जोड़ी ने बाद में गंगाधर राव के चचेरे भाई को गोद लिया, जिसका नाम बदलकर दामोदर राव रखा गया। अनुकूलन की प्रक्रिया एक ब्रिटिश अधिकारी की उपस्थिति में की गई थी। महाराजा से अधिकारी को निर्देश के साथ एक पत्र सौंपा गया था कि गोद लिए गए बच्चे को उचित सम्मान दिया जाए और लक्ष्मीबाई को उसके पूरे जीवनकाल के लिए दिया जाए।

हालाँकि, नवंबर 1853 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के महाराजा की मृत्यु के बाद, गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी के नेतृत्व में डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स ( Doctrine of Lapse) लागू किया। इस नीति के तहत, दामोदर राव के सिंहासन के दावे को खारिज कर दिया गया क्योंकि उन्हें महाराजा और रानी के बेटे को गोद लिया गया था। मार्च 1854 में, लक्ष्मीबाई को रु 60,000 वार्षिक पेंशन के रूप में दिए जाने थे और महल छोड़ने के लिए कहा गया था।

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रानी लक्ष्मीबाई: 1857 का विद्रोह

10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह शुरू हुआ। जब यह खबर झांसी पहुंची, तो लक्ष्मीबाई ने अपनी सुरक्षा बढ़ा दी और अपने लोगों को समझाने के लिए हल्दी कुमकुम समारोह आयोजित किया कि अंग्रेज कायर हैं और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है।

जून 1857 में, 12 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री ने झांसी के किले को जब्त कर लिया, अंग्रेजों को हथियार डालने के लिए राजी किया और उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, लेकिन इन्फैंट्री अपने शब्दों पर नहीं रही और ब्रिटिश अधिकारियों का नरसंहार किया। हालाँकि, लक्ष्मीबाई का इस घटना में शामिल होना अभी भी बहस का विषय है।

सिपाहियों ने महल को उड़ाने के लिए लक्ष्मीबाई को धमकी दी, झांसी से भारी धनराशि प्राप्त की और इस घटना के 4 दिन बाद वहां से निकल गए।

ओरचिया और दतिया के राज्यों ने झांसी पर आक्रमण करने और उन्हें विभाजित करने का प्रयास किया। लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सरकार से मदद की अपील की लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों का मानना ​​था कि वह नरसंहार के लिए जिम्मेदार थीं।

23 मार्च, 1858 को, सर ह्यू रोज ने, ब्रिटिश सेनाओं के कमांडिंग ऑफिसर ने रानी से शहर को आत्मसमर्पण करने की मांग की और चेतावनी दी कि अगर उसने इनकार कर दिया, तो शहर नष्ट हो जाएगा। इसके लिए, लक्ष्मीबाई ने मना कर दिया और घोषणा की, ‘हम स्वतंत्रता के लिए लड़ेंगे । भगवान कृष्ण के शब्दों में, यदि हम विजयी हैं, तो हम जीत के फल का आनंद लेंगे, यदि युद्ध के मैदान में पराजित और मारे गए, तो हम निश्चित रूप से अनन्त महिमा और मोक्ष अर्जित करेंगे। ‘

24 मार्च, 1858 को, ब्रिटिश सेना ने झांसी पर बमबारी की। झांसी के रक्षकों ने लक्ष्मीबाई के बचपन की दोस्त तात्या टोपे के पास अपील भेजी। तात्या टोपे ने इस अनुरोध का जवाब दिया और 20,000 से अधिक सैनिकों को ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा। हालांकि, सैनिक झांसी को राहत देने में विफल रहे। जब विनाश जारी रहा, रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे के साथ अपने घोड़े बादल पर किले से भाग निकलीं। बादल की मौत हो गई लेकिन उनमें से दो बच गए।

इस दौरान, वह अपने गुर्गों- खुदा बख्श बशारत अली (कमांडेंट), गुलाम गौस खान, दोस्त खान, लाला भाऊ बख्शी, मोती बाई, सुंदर-मुंदर, काशी बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंहकी वजह से बच गई। वह मुट्ठी भर गार्ड के साथ चुपके से कपाली के लिए रवाना हो गया और तात्या टोपे सहित अतिरिक्त विद्रोही बलों में शामिल हो गया। 22 मई, 1858 को, ब्रिटिश सेनाओं ने कपाली पर हमला किया और लक्ष्मीबाई हार गई।

रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और राव साहब कपाली से ग्वालियर भाग गए। इन तीनों ने शहर की रक्षा करने के लिए भारतीय सैनिको के साथ शामिल हो गए। वे अपने सामरिक महत्व के कारण ग्वालियर किले पर कब्जा करना चाहते थे।

विद्रोही ताकतों ने किसी भी विरोध का सामना किए बिना शहर पर कब्जा कर लिया और नाना साहिब को मराठा प्रभुत्व की पेशवा और राव साहिब को अपने राज्यपाल के रूप में घोषित किया। लक्ष्मीबाई अन्य विद्रोही नेताओं को बल का बचाव करने के लिए राजी नहीं कर पाई और 16 जून, 1858 को ब्रिटिश सेना ने ग्वालियर पर एक सफल हमला किया।

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रानी लक्ष्मीबाई: मृत्यु

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17 जून को, ग्वालियर के फूल बाग के पास कोताह-की-सेराई में, ब्रिटिश सेनाओं ने रानी लक्ष्मीबाई द्वारा कमांड की गई भारतीय सेनाओं पर विद्रोह का चार्ज लगाया। ब्रिटिश सेना ने 5,000 भारतीय सैनिकों को मार डाला। रानी लक्ष्मीबाई बिना घोड़े के थीं और घायल हो गईं थीं।

उनकी मौत पर दो विचार हैं: कुछ लोगों का कहना है कि वह सड़क किनारे खून बह रहा था और पहचानने पर सैनिक ने उनपर पर गोलीबारी की। हालांकि, एक और विचार यह है कि वह एक घुड़सवार नेता के रूप में थी और बुरी तरह से घायल थी। रानी नहीं चाहती थीं कि ब्रिटिश सेनाएं उनके शरीर को पकड़ें और इसे जलाने के लिए हर्मिट से कहा। 18 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई का निधन हो गया।

रानी लक्ष्मी बाई पर कविता

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार। महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात, उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात? जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, ‘नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’। यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी, जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में, रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में। ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार, रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

By: सुभद्रा कुमारी चौहान

# रानी लक्ष्मीबाई से जुड़ी कुछ प्रश्नोत्तर

रानी लक्ष्मीबाई के बेटे का क्या नाम था, रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कब हुई.

17 जून को, ग्वालियर के फूल बाग के पास कोताह-की-सेराई में, ब्रिटिश सेनाओं ने रानी लक्ष्मीबाई द्वारा कमांड की गई भारतीय सेनाओं पर विद्रोह का चार्ज लगाया। ब्रिटिश सेना ने 5,000 भारतीय सैनिकों को मार डाला। रानी लक्ष्मीबाई बिना घोड़े के थीं और घायल हो गईं थीं।

18 June 1858 को उनकी मृत्यु हो गयी थी।

रानी लक्ष्मी बाई की तलवार का वेट

3.308 किग्रा रानी लक्ष्मी बाई तलवार का वेट था ।

महामना मदन मोहन मालवीय जी

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Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi : स्टूडेंट्स के लिए 100, 200 और 500 शब्दों में रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध 

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  • Updated on  
  • अगस्त 12, 2023

Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi

“बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।” इन पंक्तियों से लगभग हर भारतीय परिचित है। रानी लक्ष्मीबाई, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की महिला सेनानी, झाँसी की रानी, वीरता और समर्पण से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान, 17 जून 1858 में ग्वालियर में शहीद हुईं। रानी लक्ष्मीबाई वीरता का प्रतिबिम्ब हैं। इस स्वतंत्रता दिवस आइए जानें Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi (रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध)। 

रानी लक्ष्मी बाई के बारे में हिंदी में 

रानी लक्ष्मी बाई, जिनका जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महिला सेनानी और माराठा साम्राज्य की एक महिला साम्राज्यशाही थीं। वह मराठा पेशवा बाजीराव की वीर महिला सेनानी और लक्ष्मीबाई नाम से मशहूर हुईं। उन्होंने जौहर करके ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी शौर्यपूर्ण संघर्ष की और कोटा के सिपाहियों का मुख्यालय लख़नव में भी युद्ध किया।

रानी लक्ष्मी बाई का वीर और साहसी व्यक्तित्व भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने झाँसी की रानी के रूप में अपने प्रजा के साथ वीरता से संघर्ष किया और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ा।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्होंने अपने पति गांधीबाबू की मृत्यु के बाद झाँसी की सत्ता संभाली और सशक्त महिला सेनानी के रूप में अपनी भूमिका निभाई। उन्होंने झाँसी के प्रजा की रक्षा करने के लिए सशक्त कदम उठाए और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ा।

लक्ष्मीबाई की मृत्यु 17 जून 1858 को हुई थी, जब उन्होंने ग्वालियर में सामर्थ्य और साहस से लड़ते हुए अपने देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। उन्होंने अपनी वीरता और समर्पण से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महिला सेनानियों का उदाहरण प्रस्तुत किया।

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध 100 शब्दों में  

100 शब्दों में Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi नीचे प्रस्तुत है –

झांसी की रानी का जन्म मणिकर्णिका तांबे 19 नवंबर 1828 वाराणसी भारत में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी सप्रे था। इनके पति का नाम नरेश महाराज गंगाधर राव नायलयर और बच्चे का नाम दामोदर राव और आनंद राव था। रानी लक्ष्मी बाई, जिन्हें झाँसी की रानी के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना थी। वह नन्ही उम्र से ही योग्यता और साहस के साथ अद्वितीय थीं। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया और 1857 के क्रांति में अपने सैन्य के साथ लड़कर दिखाया कि महिलाएं भी देश के लिए संघर्ष कर सकती हैं। उनका बलिदान हमें आदर्श और प्रेरणा प्रदान करता है।

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध 200 शब्दों में   

200 शब्दों में Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi नीचे प्रस्तुत है –

रानी लक्ष्मी बाई, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अद्वितीय वीरांगना थीं, जो झाँसी की रानी के रूप में प्रसिद्ध हुईं। उन्होंने अपने दृढ़ संकल्प और निष्ठापूर्ण साहस के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया।

1857 की क्रांति के समय, रानी लक्ष्मी बाई ने झाँसी की संघर्षशील महिला सेना के साथ ब्रिटिश शासनकाल के खिलाफ उत्कृष्ट योगदान दिया। उन्होंने अपने प्रशासकीय कौशल और लड़ाई के दृष्टिकोण से अपनी प्रजा की रक्षा की और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान हमें साहस, समर्पण और देशभक्ति की महत्वपूर्ण प्रेरणा प्रदान करता है। उनकी अद्वितीय पराक्रम, स्वाधीनता के प्रति उनके अटल समर्पण का प्रतीक है। रानी लक्ष्मी बाई का नाम हमारे राष्ट्रीय इतिहास में सदैव उनकी महान यात्रा का सबूत बना रहेगा।

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध 500 शब्दों में   

500 शब्दों में Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi नीचे प्रस्तुत हैं –

भारतीय इतिहास में रानी लक्ष्मी बाई का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वह वीरता की मिसाल हैं, जिन्होंने अपने वीरगति में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अद्वितीय यात्रा को चिरंतनीय बना दिया।  रानी लक्ष्मी बाई, जिन्हें झाँसी की रानी के नाम से भी जाना जाता है, 19वीं शताब्दी की मध्यवर्ती में पैदा हुई थी। वे मानवीय गुणों से समृद्ध थीं और नन्ही उम्र से ही अपनी साहसपूर्ण व्यक्तित्व से प्रसिद्ध थीं।

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन संघर्षों से भरपूर रहा। उनके पति गँगाधर राव ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष में भाग लिया और उनकी मृत्यु के बाद, उन्होंने स्वयं को संघर्ष के प्रति समर्पित किया। वे झाँसी की सम्राटा बनने का सपना देखती थीं और उन्होंने अपने सपनों की पुरी करने के लिए अपने जीवन की प्रतिशा की।

1857 की क्रांति और रानी लक्ष्मीबाई 

रानी लक्ष्मी बाई ने 1857 की क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने झाँसी की सम्राटा बनने के लिए अपनी सेना के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई दी। उनका वीरता और नेतृत्व सैनिकों को उत्त्साहित करने में महत्वपूर्ण था। उन्होंने झाँसी के लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक किया और उनकी आत्मबलिदानी लड़ाई ने ब्रिटिश साम्राज्य को मुश्किल में डाला।

रानी लक्ष्मी बाई का शौर्य और बलिदान अत्यधिक प्रेरणा स्रोत हैं। उन्होंने विशेष रूप से महिलाओं को उत्तसाहित किया कि वे भी देश के लिए संघर्ष कर सकती हैं और अपने अधिकारों की रक्षा कर सकती हैं।

रानी लक्ष्मी बाई का निष्ठापूर्ण समर्पण और देशभक्ति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे अपने प्रजाओं के प्रति अपनी सजीव निष्ठा दिखाती थीं और उन्होंने अपने जीवन को समर्पित किया ताकि उनके प्रजा स्वतंत्रता के मार्ग में आगे बढ़ सकें।

रानी लक्ष्मी बाई का निष्कलंक योगदान उनकी समर्पितता का प्रतीक बना रहा है। वे अपने प्रजाओं के लिए सब कुछ त्यागने के बावजूद भी, स्वतंत्रता संग्राम के उद्देश्य में अपने परिश्रम और संकल्प से कभी पिछले नहीं हटीं। उनकी बलिदानी शौर्यगाथा समृद्ध इतिहास में एक उज्ज्वल अध्याय बनी है।

निष्कर्ष 

रानी लक्ष्मी बाई का पराक्रम और योगदान अद्भुत है। उन्होंने अपने प्रजाओं के लिए संघर्ष किया, उनकी आवश्यकताओं की रक्षा की और उन्हें स्वतंत्रता की दिशा में मार्गदर्शन किया। उनका योगदान न केवल झाँसी में, बल्कि पूरे देश में एक प्रेरणा स्रोत बना।

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन एक उदाहरणपूर्ण संघर्ष और उच्च नैतिकता की प्रेरणा से भरपूर है। उन्होंने समाज में महिलाओं के अधिकारों की प्रतिष्ठा करने का संकल्प लिया और उन्होंने दिखाया कि महिलाएं भी समाज के सामाजिक और आर्थिक मुद्दों में अपनी आवाज उठा सकती हैं।

रानी लक्ष्मी बाई की वीरता, दृढ संकल्प, और अद्वितीय साहस से भरपूर कहानी हमें सिखाती है कि आत्मबलिदान और देशभक्ति के साथ कोई भी मुश्किलाएं पार की जा सकती हैं। उनका योगदान हमारे समृद्ध और महान इतिहास का हिस्सा रहेगा, जो हमें सदैव प्रेरित करता रहेगा।

रानी लक्ष्मी बाई पर 10 लाइन्स 

रानी लक्ष्मीबाई पर 10 लाइन्स कुछ इस प्रकार हैं –

  • रानी लक्ष्मी बाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महान वीरांगना थीं।
  • उन्हें ‘झाँसी की रानी’ के रूप में भी जाना जाता है।
  • वे अपनी साहसपूर्ण और निष्ठापूर्ण व्यक्तित्व से प्रसिद्ध थीं।
  • रानी लक्ष्मी बाई ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और झाँसी की सम्राटा बनने का सपना देखा।
  • उन्होंने अपने दृढ संकल्प और योगदान से अपने सैन्य को प्रेरित किया।
  • उन्होंने झाँसी की रक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई दी और बहादुरी से संघर्ष किया।
  • रानी लक्ष्मी बाई का समर्पण और देशभक्ति का उदाहरण हम सबके लिए प्रेरणास्त्रोत है।
  • उनका पराक्रम और योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण पन्नों में गिने जाते हैं।
  • उनकी अद्वितीय वीरता और साहस की कहानी हमें यह सिखाती है कि स्त्री शक्ति भी समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
  • रानी लक्ष्मी बाई का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गर्वशील पन्नों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

रानी लक्ष्मी बाई कोट्स 

रानी लक्ष्मीबाई कोट्स कुछ इस प्रकार हैं –

“जो कुछ भी हम करते हैं, वो साहस, संघर्ष और समर्पण से होना चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई
“आगे बढ़ने के लिए हमें संकल्पित होना चाहिए, और हमें अपने मकसदों के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहना चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई
“महिलाएं शक्ति के स्रोत होती हैं, और उन्हें अपनी शक्तियों का सही तरीके से उपयोग करना चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई
“समाज के उत्थान के लिए, हमें समृद्धि के साथ-साथ सामाजिक बदलाव की भी आवश्यकता होती है।” – रानी लक्ष्मी बाई
“संघर्ष और परिश्रम से ही हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं, और हमें कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई
“हमारे पास संकल्प होना चाहिए कि हम समाज में सामर्थ्य और समानता का संरक्षण करेंगे, और हमें उन समस्याओं का समाधान निकालने के लिए सहयोग करना चाहिए जो हमारे समाज को प्रभावित कर रही हैं।” – रानी लक्ष्मी बाई
“हमें अपने सपनों की प्राप्ति के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए, चाहे रास्ते में जितनी भी चुनौतियाँ क्यों न हो।” – रानी लक्ष्मी बाई
“महिलाएं समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, और उन्हें उनके हकों के लिए संघर्ष करना चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई
“सफलता के लिए जरूरी है कि हम अपने लक्ष्यों की ओर कदम बढ़ाते रहें और हालातों से हार नहीं मानें।” – रानी लक्ष्मी बाई
“हमें समाज में सद्गुणों का प्रचार करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से निभाना चाहिए।” – रानी लक्ष्मी बाई

नोट: ये कोट्स रानी लक्ष्मी बाई के जीवन और विचारों से प्रेरित हैं, लेकिन कृपया सत्यता की पुष्टि करने के लिए अन्य स्रोतों से भी जानकारी लें।

रानी लक्ष्मी बाई से जुड़े कुछ तथ्य 

रानी लक्ष्मीबाई से जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्य कुछ इस प्रकार हैं –

  • झाँसी के शासक से विवाह होने के बाद ही रानी लक्ष्मीबाई को लक्ष्मी के नाम से जाना जाने लगा। जन्म के समय उनका नाम मणिकर्णिका तांबे था और प्यार से उन्हें ‘मनु’ कहा जाता था।
  • बाजीराव द्वितीय के दरबार में अपने दिनों के दौरान मणिकर्णिका एक चुलबुली और हंसमुख बच्ची थी। पेशवा ने उन्हें ‘छबीली’ या चंचल भी कहा था। 
  • रानी लक्ष्मी बाई की नाना साहेब और तात्या टोपे, उन दो नेताओं, जिन्होंने उनके साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था, के साथ घनिष्ठ मित्रता थी। ऐसी अफवाह है कि वे बचपन से दोस्त थे और यहां तक ​​कि उन्होंने एक साथ शिक्षा भी ली थी। 
  • रानी लक्ष्मी बाई अपने जीवन में बिना माँ के पली बढ़ीं क्योंकि उनकी जन्म देने वाली माँ की मृत्यु तब हो गई जब वह केवल चार वर्ष की थीं। उनका पालन-पोषण उनके पिता मोरोपंत तांबे ने किया, जो बिठूर के पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में काम करते थे। 
  • रानी लक्ष्मीबाई का विवाह सात वर्ष की उम्र में झाँसी के शासक महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से कर दिया गया। हालाँकि, उनकी शादी तब तक संपन्न नहीं हुई जब तक वह 14 साल की नहीं हो गईं। 
  • 1851 में, रानी लक्ष्मी बाई ने एक लड़के को जन्म दिया, जिसे झाँसी के सिंहासन का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। उनका नाम दामोदर राव रखा गया। लेकिन उनका पहला बच्चा शैशवावस्था तक जीवित नहीं रह सका और दुर्भाग्य से जब वह केवल चार महीने का था, तब उसकी मृत्यु हो गई।
  • वह केवल 18 वर्ष की उम्र में झाँसी की शासक बन गईं, जब उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा साम्राज्य पर लगाए गए चूक के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया और अपने छोटे बेटे के लिए स्थानधारक के रूप में खुद को शासक शासक का नाम दिया। 
  • ऐसा कहा जाता है कि मृत्यु के कगार पर भी, ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी घृणा इतनी प्रबल थी कि वह नहीं चाहती थीं कि वे उनके शरीर पर कब्ज़ा करें। इसलिए, उसने एक साधु को इसे जलाने का आदेश दिया और बाद में ही कुछ स्थानीय लोगों द्वारा उसका उचित दाह संस्कार किया गया।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चाहती थीं कि ईस्ट इंडिया कंपनी उनके पति की मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र को राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दे। इस मांग को अंग्रेजों ने अस्वीकार कर दिया।

रानिलष्मीबाई ने झांसी में विद्रोह का नेतृत्व किया। 

यह था रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध, Essay on Rani Lakshmi Bai in Hindi पर हमारा ब्लॉग। इसी तरह के अन्य निबंध से सम्बंधित ब्लॉग्स पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बनें रहें।

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विशाखा सिंह

A voracious reader with degrees in literature and journalism. Always learning something new and adopting the personalities of the protagonist of the recently watched movies.

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रानी लक्ष्मीबाई.

जन्म : 19 नवम्बर 1828, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

मृत्यु : 18 जून 1858, कोटा की सराय, ग्वालियर

कार्यक्षेत्र : झाँसी की रानी, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना

रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थीं। वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयीं परन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।

प्रारंभिक जीवन

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये। वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से “छबीली” कहने लगे। शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी। सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए। उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

अंग्रजों की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) और झाँसी

ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।

अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष 

अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। झाँसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया। लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया।

अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई की जंग में कई और अपदस्त और अंग्रेजी हड़प नीति के शिकार राजाओं जैसे बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।

सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया। लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली। झाँसी से भागकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिलीं।

तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं।

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Rani Laxmi Bai Ka Jivan Parichay | रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय

Rani Laxmi Bai Ka Jivan Parichay | रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय

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रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय | Rani Laxmi Bai Ka Jivan Parichay

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai), जिन्हें ‘झाँसी की रानी’ के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महिला योद्धा और झाँसी की प्रमुख नेता थीं। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1828 को वाराणसी के पेशवा बाजीराव पेशवा के दरबार में हुआ था। उनके वालिद महादजी शिवराव नानासाहेब पेशवा के सेनापति थे। उनका नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया था जिसे बाद में ‘लक्ष्मीबाई’ के रूप में जाना जाने लगा।

लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) की बचपन की शिक्षा बहुत ही प्रेरणादायक थी। उन्होंने संस्कृत, मराठी, अंग्रेजी और पूरी की शिक्षा प्राप्त की थी। उनका विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव ने किया था।

1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है) में, लक्ष्मीबाई ने अपने पति की मृत्यु के बाद झाँसी की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ा और अपनी सेना के साथ झाँसी की रक्षा की।

लक्ष्मीबाई का योगदान 1858 में झाँसी के संघर्ष के परिणामस्वरूप उनकी सेना ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन उन्होंने हार माननी पड़ी और झाँसी को त्यागने का निर्णय लिया। इसके बाद, वे कालपी मंगलोरे और थाने में रहीं, लेकिन 17 जून, 1858 को उन्होंने कानपूर में ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान गंवा दी।

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) को उनके शौर्य और स्वतंत्रता संग्राम में की गई महान प्रायश्चित्रण के रूप में स्मरित किया जाता है। उनकी साहसी और निष्ठापूर्ण योद्धा स्वभाव की कहानी आज भी लोगों को प्रेरित करती है।

रानी लक्ष्मी बाई का शासन | Rani Laxmi Bai Ka Shasan

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) ने झाँसी के महाराज गंगाधर राव की मृत्यु के बाद, अपनी सन्तान के अभाव में झाँसी का प्रशासन संभाला। उन्होंने अपने राज्य की प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभाई और अपने लोगों की कल्याण के लिए प्रतिबद्ध रही।

लक्ष्मीबाई ने अपने शासनकाल में कई सुधार किए और झाँसी को आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से मजबूती दिलाने का प्रयास किया। उन्होंने कृषि, व्यापार, और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार किए और स्थानीय समाज को सशक्त बनाने के लिए कई उपायों को अपनाया।

लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश आदर्शों और नियमों का पालन नहीं किया और उन्होंने अपने राज्य के प्रबंधन में स्वतंत्रता दिखाई। इसके परिणामस्वरूप, ब्रिटिश साम्राज्य ने उनके खिलाफ संघर्ष किया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान झाँसी की लड़ाई में उन्होंने अपने शौर्य का प्रदर्शन किया।

उनके योगदान के बावजूद, 1858 में झाँसी की संघर्ष का परिणाम संविदानिक रूप से उनके हानि में साबित हुआ और उन्हें झाँसी को त्यागने का आदेश दिया गया। यह उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसमें वे अपने प्रिय राज्य को छोड़ने के लिए मजबूर हो गईं।

लक्ष्मीबाई का शासनकाल संक्षिप्त था, लेकिन उनके शौर्यपूर्ण संघर्ष और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका ने उन्हें भारतीय इतिहास के महान योद्धा के रूप में स्थायी जगह दिलाई है।

रानी लक्ष्मी बाई की शिक्षा | Rani Laxmi Bai Ki Shiksha

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) की शिक्षा उनके समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण थी। उन्होंने अपने जीवन में कई भाषाओं की शिक्षा प्राप्त की और विभिन्न कला-क्षेत्रों में भी रूचि रखी।

उनका जन्म 19 नवम्बर, 1828 को हुआ था, जब विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा को लेकर ब्राह्मण समाज में विभिन्न सोच थी। फिर भी, उनके पिता महादजी शिवराव की मान्यता और उनके शिक्षाप्रिय दृष्टिकोण के चलते उन्हें अच्छी शिक्षा मिली।

लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) को वाराणसी के दरबार में संस्कृत, मराठी और अंग्रेजी भाषा में शिक्षा प्राप्त हुई। इसके साथ ही, वे बीजिक विद्या, गीत, संगीत और बृज भाषा में भी प्रशिक्षित थीं।

उनके विद्यालयी शिक्षा में रुचि थी और वे सामाजिक उत्थान, सामाजिक सुधार और महिलाओं के अधिकारों की महत्वपूर्णता पर गहरा विचार करती थीं। उनकी शिक्षा ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उत्तरदायित्व से भरपूर बनाया और उन्होंने अपनी शिक्षा और उच्चतम मूल्यों के साथ अपने राज्य की सुरक्षा और स्वतंत्रता की रक्षा की।

Also Read:- Mirabai Ka Jivan Parichay

ब्रिटिश शासन के खिलाफ शासन | Rani Laxmi Bai British Ke Khilaf Shasan

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmi Bai) ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ साहसिकता और संघर्ष दिखाया था। उन्होंने झाँसी के महाराज गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अपने राज्य की रक्षा के लिए संघर्ष किया और अपनी सेना के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है) के दौरान, लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना के साथ झाँसी की रक्षा की और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ लड़ाई की। उन्होंने अपने योद्धा स्वभाव का प्रदर्शन करते हुए अपने लोगों को प्रेरित किया और स्वतंत्रता संग्राम की ओर महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया।

उन्होंने झाँसी की सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़कर उन्होंने अपने शौर्य और साहस का प्रदर्शन किया। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण था, और उन्हें ‘झाँसी की रानी’ के नाम से याद किया जाता है।

हालांकि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ी, लेकिन आखिरकार 1858 में झाँसी की लड़ाई में हार माननी पड़ी और उन्हें अपने प्रिय राज्य को छोड़कर भागने का निर्णय लिया।

लक्ष्मीबाई का संघर्ष और उनकी शौर्यपूर्ण कहानी आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धाओं के रूप में याद की जाती है और उन्हें एक महिला योद्धा के रूप में महत्वपूर्ण स्थान मिलता है।

Read More:- Rani Laxmi Bai Jivan Parichay

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Jhansi Ki Rani Laxmi Bai

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Book Source: Digital Library of India Item 2015.321394

dc.contributor.author: Verma, Vrindavan dc.date.accessioned: 2015-08-11T21:31:48Z dc.date.available: 2015-08-11T21:31:48Z dc.date.copyright: 1956 dc.date.digitalpublicationdate: 2010/01 dc.date.citation: 1956 dc.identifier.barcode: 99999990245189 dc.identifier.origpath: /data4/upload/0097/993 dc.identifier.copyno: 1 dc.identifier.uri: http://www.new.dli.ernet.in/handle/2015/321394 dc.description.scannerno: Banasthali University dc.description.scanningcentre: Banasthali University dc.description.main: 1 dc.description.tagged: 0 dc.description.totalpages: 526 dc.format.mimetype: application/pdf dc.language.iso: Hindi dc.publisher.digitalrepublisher: Digital Library of India dc.publisher: Mayur Prakashan, Jhansi dc.source.library: Prakrit Bharati Academy, Jaipur dc.subject.keywords: Rani Laxmi Bai dc.title: Jhansi Ki Rani Laxmi Bai dc.type: Print - Paper dc.type: Book

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Rani Lakshmi Bai Essay for Students and Children

500+ words essay on rani lakshmi bai .

Rani of Jhansi or Rani Lakshmi Bai ’s maiden was Manu Bai. Manu Bai or Manikarnika was born to Moropant Tambe and Bhagirathi Tambe on 19 th November 1828 at Kashi (Varanasi). At the small age of about 3-4 years, she lost her mother and was thus, brought up by her father alone. After the death of her mother, Manu Bai and her father shifted to Bithoor and started living with Peshwa Baji Rao.

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Childhood Days of Rani Laksmi Bai

Since childhood, Manu was inclined towards the use of weapons. She thus learned horse-riding, sword fighting, and martial arts and mastered these. She was a beautiful, intelligent and brave girl. Manu spent her childhood in the company of Nana Sahib, the son of Peshwa Baji Rao II. She had great courage and presence of mind which she proved once while saving Nana Sahib from getting crushed by the horse’s feet.

Marriage with Maharaja of Jhansi

In May 1842, Manu got married to Raja Gangadhar Rao Newalkar, Maharaja of Jhansi, and was now known as Rani Lakshmi Bai. In 1851, she gave birth to Damodar Rao who died when he was just 4 months old. Thus, in 1853, Gangadhar Rao adopted a child and named him after his son, Damodar Rao. But, unfortunately, Gangadhar Rao died soon due to illness and Lord Dalhousie, the then Governor-General of India denied this adoption.

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Rani and the Policy of Doctrine of Lapse

According to the Policy of Doctrine of Lapse, the British annexed all those states that did not have a legal heir to the throne. Thus, Lord Dalhousie did not approve of the adoption and wanted to annex Jhansi. Lakshmi Bai was enraged by this but eventually British annexed Jhansi. She made a couple of petitions against Lord Dalhousie but all her attempts proved futile.

  Mutiny of 1857

However, in 1857 there broke out the first war of Indian Independence. The revolt soon spread to Delhi, Lucknow, Kanpur, Allahabad, Punjab, and other parts of the country. The revolutionaries declared Bahadur Shah Zafar as their King. Rani Lakshmi Bai also joined the revolt quickly and took command of the revolutionary forces. She captured the Jhansi fort on June 7, 1857, and began to rule as a Regent on behalf of her minor son, Damodar Rao.

On 20 th March 1958, the British sent a massive force under Sir Hugh Rose in order to recapture Jhansi. She was supported by Tantya Tope. It was a severe battle in which both parties suffered heavy losses. Eventually the British recaptured the fort by betrayal. However, Rani Lakshmi Bai escaped with some of her loyal followers and reached Kalpi. Soon, with the help of Tantya Tope and Rao Sahib, she captured the Gwalior fort from Jivaji Rao Scindia.

Scindia asked the British for help and they willingly extended their support. In the battle, she fought bravely and with gallantry heroism. She was wounded by one of the English horsemen and collapsed. She fought with her son tied on her back and died with a sword in her hand. Ramachandra Rao, her loyal attendant immediately removed her body and lit the funeral pyre. Thus, the British could not even touch her. She martyred on 18 th June 1858 at Kotah-ki-Serai in Gwalior.

Indian history has not yet witnessed a woman warrior as brave and powerful as the Rani of Jhansi, Rani Lakshmi Bai. She martyred herself in a struggle to attain Swaraj and liberate the Indians from the British rule. Rani Lakshmi Bai is a glorious example of patriotism and national pride. She is an inspiration and an admiration for a lot of people. Her name is thus written in golden letters in the history of India and will always stay in the heart of every Indian.

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500 Words Speech on Rani Lakshmi Bai

Born as Manikarnika and famous as Rani Lakshmi Bai is one of the Indian warriors who have no match at all. She was as brave as Devi Durga and as intelligent as Devi Saraswati. It is not wrong to say that she was the only one of her kind.

Rani Lakshmi Bai who fought for her rights is an inspiration for many of us. We can not forget this brave and heroic personality who impacted the Indians as well as the world. She accepted death but did not let her enemies even touch her. She deserves a huge salute from all of us.

⬇ Speech Starts Here ⬇

Hello, all of you who are present here.

First of all, I want to wish you all the best wishes for the day and also want to thank you for having me this great opportunity to share my thoughts on a very brave lady- Rani Lakshmi Bai. Let me start from the beginning.

Bravery does not favour any specific gender. This was the lesson that Rani Lakshmi Bai has taught the world. She was so courageous that even her enemies have sung her glory. India is blessed to have such a brave woman who sacrificed her life but did not give up.

Rani Lakshmi Bai or Manikarnika was born on 19 th  November 1828 to Moropant Tambe and Bhagirathi Tambe at Kashi (Varanasi). When she was only four years old, her mother passed away. After the death of her mother, she and her father moved to Bithoor where she was brought up by her father in the palace of Peshwa Baji Rao. She grew up as a beautiful, smart and brave girl.

Since her childhood, she was very fond of learning horse riding, sword fighting, Shooting and martial arts. She was also a passionate reader. She practised sword fights with Rao Sahib, Nana Sahib, Tantia Tope, and other boys who came to Peshwa’s court. Her presence of mind was exceptional.

In the year 1842, at the age of fourteen Manikarnika was married to the Maharaja of Jhansi,  Gangadhar Rao Newalkar . According to the Maharashtrian tradition, women were given a new name after marriage. So, she was called Rani Lakshmi Bai afterwards.

She became the queen of Jhansi after she married the King of Jhansi. After the death of the Maharaja, the British government annexed her Jhansi to its territory. Then she decided to get it back and she fought against British rule.

In 1857, the first rebellion began against British rule, The rani of Jhansi took part in it. She captured the Jhansi fort on June 7, 1857, and began to rule as a Regent on behalf of her minor son, Damodar Rao. On 20th March 1958, the British sent a giant force under Sir Hugh Rose in order to recapture Jhansi.

A fierce battle took place in which both parties suffered grave losses. She was supported by Tantia Tope. Eventually the British recaptured the fort by betrayal. Soon, with the help of Tantia Tope and Rao Sahib, she captured the Gwalior fort from Jivaji Rao Scindia.

Scindia requested British support and they willingly extended their support. In the battle, she fought bravely and with gallantry heroism. She was wounded by one of the English horsemen and collapsed. She was martyred on 18 th  June 1858 at Kotah-ki-Serai in Gwalior.

Rani Lakshmi Bai is a glorious example of patriotism and national pride. She is an inspiration and an admiration for a lot of people.

Thank you for having listened to my words. I hope you liked my speech.

Speech On Rani Lakshmi Bai- 2 Minutes

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Speech on Rani Lakshmi Bai

Meet Rani Lakshmi Bai, one of India’s bravest warriors. She was the queen of Jhansi, a city in northern India.

Her courage and leadership during the 1857 revolt against British rule made her a symbol of resistance. Her story inspires millions even today.

1-minute Speech on Rani Lakshmi Bai

Good morning everyone, I am here today to speak on a courageous personality, Rani Lakshmi Bai who was an embodiment of bravery and patriotism. She was one of the main leaders in the first war of Indian independence in 1857.

Rani Lakshmi Bai was born on 19th November 1828 in Varanasi. Her determination and courage were evident from her childhood. She was married to Raja Gangadhar Rao of Jhansi and after his death, she took the throne of Jhansi under her control.

Rani Lakshmi Bai played a crucial role in the revolt of 1857 against the British rule. She took the command of her kingdom and led her troops bravely against the British. Even in her personal life, she was an epitome of courage and resilience.

Despite the adversities she faced, Rani Lakshmi Bai did not surrender to the British, instead, she decided to fight till her last breath. Her famous quote, “I will not give my Jhansi” still resonates in the hearts of Indians and ignites the spirit of patriotism.

Sadly, Rani Lakshmi Bai succumbed to her injuries in the battlefield on 18th June 1858. However, her courage and bravery live on and continue to inspire millions across the world.

In conclusion, Rani Lakshmi Bai’s life teaches us to face difficulties with courage and determination. She was a true patriot who fought for her country till the end. Her bravery and heroism will always be remembered and it continues to inspire future generations.

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  • Essay on Rani Lakshmi Bai

2-minute Speech on Rani Lakshmi Bai

Ladies and Gentlemen,

Today, I stand before you to talk about an exceptional woman, an epitome of courage, and an inspiration to all – Rani Lakshmi Bai. She was a beacon of female empowerment and a national hero during India’s struggle for independence. Her life story is not just an account of heroic battles but also a narrative of an indomitable spirit.

Rani Lakshmi Bai was born as Manikarnika Tambbe in Varanasi on 19th November 1828. She was fondly called ‘Manu’. A childhood filled with tales of bravery, her father’s influence, and her own will made her proficient in horse riding, archery and swordplay. She was brought up to be a leader, an attribute that would later shape the course of Indian history.

In 1842, at the tender age of 14, she was married to Raja Gangadhar Rao, the Maharaja of Jhansi. She was then addressed as Rani Lakshmi Bai, following her marriage. With marriage, Rani’s life took a turn. She adopted a son after the death of her husband and named him Damodar Rao. However, the British rulers refused to acknowledge the young prince as the legal heir to the throne. This event was the turning point in the life of Rani Lakshmi Bai. She decided to fight against the British to reclaim her throne.

This brave queen of Jhansi, who once played with dolls, was now ready to play with swords. Her courage can be reflected in her famous slogan, “I will not give my Jhansi,” representing her determination and patriotism. Her resistance against the British in 1858 during the first war of Indian independence is an epitome of real heroism.

Rani Lakshmi Bai led her army with immense courage. She fought valiantly, not just for her kingdom of Jhansi, but also for a bigger cause – the freedom of India. Unfortunately, she was martyred in the battlefield, but her indomitable spirit remained alive.

Rani Lakshmi Bai has left a lasting legacy. Her life, filled with courage and bravery, is a source of inspiration for all. She broke stereotypes and proved that women’s power is not limited to nurturing and caring; they are equally capable of leadership and bravery. The story of Rani Lakshmi Bai serves as a reminder that women can be warriors, leaders, and nation builders.

In conclusion, Rani Lakshmi Bai was not just a queen, but a courageous warrior, a loving mother, and an inspiring leader. Her life and struggles are a testament to her indomitable spirit and unwavering love for her country. Her bravery will continue to inspire generations to come. Just like Rani Lakshmi Bai, let us all strive to be brave in our battles, strong in our struggles, and always stand up for what is rightfully ours. Thank you for your time and attention.

With these words, I would like to end my speech today. I hope Rani Lakshmi Bai’s story has inspired you just as much as it inspires me. Let’s carry her legacy forward and remember her as a symbol of courage and endurance.

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  • NCERT Notes Rani Laxmibai Rani Of Jhansi

Rani Lakshmi Bai - Rani of Jhansi [NCERT Notes: Modern Indian History For UPSC]

This article talks about Rani Laxmibai – The Rani of Jhansi. She was the epitome of courage and bravery. She was born into a Maratha family and she was an important name in the struggle for Independence against the British.

This is an important topic for the UPSC IAS Exam aspirants. These NCERT notes will also be useful for other competitive exams like banking PO, SSC, state civil services exams and so on. Candidates can also download the notes PDF from the link provided below.

Rani of Jhansi (Rani Lakshmi Bai): UPSC Exam Notes – Download PDF Here

Rani Lakshmi Bai Biography

Rani Laxmibai also called the Rani of Jhansi was a pivotal figure in the Indian Revolt of 1857. She is also regarded as one of the greatest freedom fighters in India.

Rani_of_jhansi

Rani Lakshmibai was born on 19 November 1828 in the town of Varanasi. She was named Manikarnika Tambe and was nicknamed Manu. Her father was Moropant Tambe and her mother was Bhagirathi Sapre (Bhagirathi Bai); they hailed from modern-day Maharashtra. At four years old her mother passed away. Her father was the Commander of War under Peshwa Baji Rao II of Bithorr District. Rani Laxmi Bai was educated at home, able to read and write, and was more independent in her childhood than others of her age; her studies included shooting, horsemanship, and fencing which was in contrast to the cultural expectations for women in Indian society at the time.

  • At the age of 14, she was married to the Maharaja of Jhansi, Gangadhar Rao in 1842.
  • After her marriage, she was called Laxmibai.
  • Rani Lakshmi Bai’s son Damodar Rao was born in 1851. But he died after four months.
  • Gangadhar Rao died in 1853. Before he died, he had adopted his cousin’s son Anand Rao, who was renamed, Damodar Rao.

Rani Lakshmi Bai Contributions in Indian Freedom Struggle

Rani Lakshmi Bai was known for her outstanding bravery who was an important name in the Freedom Struggle against the British. This section highlights her major activities carried out against the British Government to fulfil the dream of a Free India.

10 Points about Rani Lakshmi Bai Role in the 1857 Revolt

  • Lord Dalhousie (Born on April 22, 1812) sought to annex Jhansi when the Maharaja died applying the Doctrine of  Lapse since the king did not have any natural heir.
  • As per this, the Rani was granted an annual pension and asked to leave the fort of Jhansi.
  • The Revolt of 1857 had broken out in Meerut and the Rani was ruling over Jhansi as regent for her minor son.
  • British forces under the command of Sir Hugh Rose arrived at the Jhansi Fort with the intention of capturing it in 1858. He demanded that the city surrender to him or else it would be destroyed.
  • Rani Laxmibai refused and proclaimed, “We fight for independence. In the words of Lord Krishna, we will if we are victorious, enjoy the fruits of victory, if defeated and killed on the field of battle, we shall surely earn eternal glory and salvation.”
  • For two weeks the battle went on where the Rani led her army of men and women valiantly against the British. Despite courageous fighting, Jhansi lost the battle.
  • The Rani, tying her infant son on her back, escaped to Kalpi on horseback.
  • Along with Tatya Tope and other rebel soldiers, the Rani captured the fort of Gwalior.
  • Afterwards, she proceeded to Morar, Gwalior to fight the British.
  • Rani Laxmibai died while fighting in Gwalior on 18th June 1858, aged 23. She was dressed as a soldier when she died.

Rani Lakshmi Bai Legacy

  • Sir Hugh Rose has commented, “Remarkable for her beauty, cleverness and perseverance, she had been the most dangerous of all the rebel leaders. The best and bravest of all.”
  • Rani Laxmi Bai became a symbol of resistance against British rule for later nationalists in India.
  • She will always be remembered as a great martyr who laid down her life for the cause of freedom. She is a symbol of courage, heroism and woman power.

Frequently Asked Questions about Rani Lakshmi Bai

Where did rani lakshmi bai fight her last battle, what is rani laxmi bai famous for.

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English Summary

4 Minute Speech on Rani Lakshmi Bai In English

A very good morning to one and all present here. Today, I will be giving a short speech on the topic of ‘Rani Lakshmi Bai’.

Rani Lakshmi Bai is famously known as the great “Jhansi Ki Rani”. Born in Varanasi or Kashi as it was then known, she was a fierce patriot and was a key figure in the Indian Independence Movement against the tyranny of the British in 1857. 

Details on her childhood and other personal information are scarce. However, it is believed that she was born with the name Manikarnika– Manikarnika Tambe. Her parents were Moropant Tambe and Bhagirathi Sapre . It is said that she was born on the 19th of November in the year 1828. 

Married as a child to Raja Gangadhar Rao of Jhansi in 1838, she became to reign as the queen post his demise. Wikipedia, in fact, details this information on the monarch. It states as follows: “Rani Lakshmibai, the Rani of Jhansi, was an Indian queen, the Maharani consort of the Maratha princely state of Jhansi from 1843 to 1853 as the wife of Maharaja Gangadhar Rao.”

Rani Lakshmi Bai was a fearsome warrior through and through. She was every inch the queen she is known to be today, not bowing to anyone. Refusing to submit to the demands of the British, she fought against them with her army valiantly, becoming one of the first in India to raise her voice against the White Coloniser. Her act of defiance was told and retold, spurring more people to protest as well. 

She gave up her life valiantly on the battlefield in Gwalior on the 18th of June, 1858. 

I’d like to conclude my speech with her inspiring quote, “If defeated and killed on the field of battle, we shall surely earn eternal glory and salvation.”

Thank you. 

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